Sunday 11 October 2015

जब एक ओर किसी किशोरावस्था में प्रवेश कर रही स्त्री का यौवन हिलोरे मार रहा होता है तो दूसरी ओर उसे अपने भविष्य की चिंता सता रही होती है । एक ओर परिवार की उम्मीदें जुडी होती है तो दूसरी ओर समाज उसे आँखें दिखा रहा होता है , ऐसी अवस्था में वह किसी जीवनसाथी की तलाश करने की कोशिश करती है जो उसकी पवित्रता को ध्यान में रखते हुए उसे समाज की कुरीतियों से बचाकर , परिवार की उम्मीदों का ध्यान रखकर उसे उसकी मंज़िल तक पहुंचा दे । जरा देर में उसे वो जीवन साथी मिल तो जाता है पर वो उसे उसके "रूप-रास का पान करके उसे वासनावर्त के अंधकार में धकेलकर चला जाता है , वो बार-बार चीखती रहती है पर कोई भी नहीं आता । फिर परिवार के लोग तानाकशी करने लगते है और समाज उसे नकार देता है । ऐसी अवस्था में कोई करे भी तो क्या करे ??? एक स्त्री की असल जिंदगी की शुरुआत तो यहीं से होती है । इसी पायदान से वह अपने जिंदगी का पहला पड़ाव पार करती है । और पूरा समाज उसके लिए बुरा बन जाता है ।इस एकाकीपन में सिर्फ और सिर्फ उसका "आत्मविस्वास " ही काम आता है । जो उसका"सच्चा साथी " होता है